एक ड्राइवर की डायरी: ... मैं अपने जीने की ज़िद की लहरों से वक्त के किनारे को धक्का दिये जा रहा हूँ।
विजय राणा जी पिछले अट्ठाइस वर्षों से दिल्ली की सड़कों पर गाडियाँ दौड़ाने का काम करते आ रहे हैं। वे मुस्कुरा कर कहते हैं कि धरती पर ट्रेन और आकाश में प्लेन उड़ाने के अलावा उनको सभी गाड़ियों को ठीक से हांक लेने का हुनर आता है। दिल्ली में लंबे समय से गाड़ी चलाते-चलाते उनको यहाँ की हर गली,ट्रैफिक सिग्नल और सड़क के हर मोड़ बहुत जाने-पहचाने से लगते हैं। वे इस बात को बखूबी समझते हैं कि सड़क के इन मोड़ों में, जाम हुए सड़कों पर रुकी गाड़ियों के काफ़िलों में, ट्रैफिक सिग्नल की लाल और हरी होती बत्तियों में उनका जीवन भी वर्षों से मुड़ता रहा है, कभी रुकता तो कभी सरपट भागता रहा है। इन बत्तियों की तरह बिना थके उनकी जिंदगी भी दुख-सुख के लाल-हरे रंगों की रौशनी लिए वक्त की सड़क पर दौड़ती चली जा रही है। इन दिनों वे UB.....R.कम्पनी की गाड़ी चला रहे हैं। बातचीत से वे बहुत समझदार और सुलझे हुए इंसान मालूम पड़ते हैं। विजय जी और मैंने दोनों ने मास्क ओढ़ रखा है। उनका चेहरा ठीक से दिखाई नहीं दे रहा। हाँ, कद-काठी से विजय जी साधारण मालूम पड़ते हैं। ट्रैफिक सिग्नल की प्रतीक्षा में एक जगह गाड़ी रुकती है। विजय जी पानी पीने के लिए मास्क हटाते हैं। मैं आगे की सीट से अपनी दायीं तरफ मुड़कर पहली बार विजय जी को ठीक से देखता हूँ। ट्रैफिक लाईट की रौशनी में
विजय जी का चेहरा मुझे साफ नजर आ रहा है। मैंने देखा कि उनके सांवले रंग के चेहरे के कैनवास पर झुर्रियों का एक स्थायी ठिकाना था। उम्र की नदी में जैसे चिंता का कोई टापू बहुत सख्ती से उभर आया हो, विजय जी के चेहरे पे झुर्रियां भी ऐसी ही अभर आयीं थीं। ये बेरंग झुर्रियां उम्र की एक पहर के ढल जाने की सूचना भी दे रहीं थीं। पहली निगाह में वे स्वभाव से गम्भीर और कम बोलनेवाले व्यक्ति मालूम पड़े। पर मैं कि अपनी आदत से मजबूर कि मुझसे चुप नहीं बैठा जाता। मुझे वह यात्रा बहुत बोझिल और नीरस लगती है जिसमें संगीत और संवाद दोनों नदारद हों। मैंने उनसे बातचीत शुरु की। पहले तो बस वे सिर्फ मेरे सवालों का उत्तर दे रहे थे लेकिन कुछ ही देर बाद वे सहज होकर बोलने लगे और खूब बोलने लगे। वे कहने लगे कि देवभूमि उत्तराखंड की पहाड़ियों से मेरा ताल्लुक है। मेरा जन्म स्थान भी उत्तराखण्ड है। जिंदगी की जरूरतों और दुष्वारियों ने मुझे दिल्ली से दिल्लगी करने पर मजबूर कर दिया। जब मैंने होश संभाला तो परिवार की जरूरतों का दबाव देखा। जैसे-जैसे मैं बड़ा हो रहा था मुझे यह एहसास हो रहा था कि गरीबी और मजबूरी के भयानक रंग मेरे घर की दीवारों को रोज-रोज थोड़ा और गाढ़ा करते जा रहे हैं। एक दिन मैंने तय किया कि घर की दीवारों पर खुशियों का रंग चढ़ाना है। मैं नौकरी-पेशे की तलाश में दिल्ली आ गया। तब से लेकर आज दिन तक दिल्ली ने मेरा और मैंने दिल्ली का हाथ थामे रखा है। यह शहर मेरे सपनों का शहर तो नहीं है लेकिन इस शहर को जैसे किसी चादर की तरह ओढ़कर मैं लगातार सपने देखे जा रहा हूँ। यह शहर मेरे लिए मेरे सपनों के शहर को चलाये रखने का शहर है जो कभी सोता नहीं, जागता रहता है और मेरे सपनों को जगाये रखता है। जब अपना पहाड़ छूटा तो बहुत दर्द हुआ लेकिन जब जिंदगी में मुश्किलों का पहाड़ खड़ा दिखाई दिया तो इस शहर ने मुझे उम्मीद दी, हौसला दिया और यह सलीका भी दिया कि दिन हो या रात चलते रहोगे तो पहाड़ हार जायेंगे।तुम्हारे कदम चलते रहने के आदि हो गये तो मुश्किल से मुश्किल सफर भी बीत जाएगा। तब फर्क नहीं पड़ेगा कि तुम कितना चलते जा रहे हो, तुम्हारे कदमों को दर्द की नहीं...दुख के सभी हदों को नाप लेने की आदत हो जाएगी। मैं बस वहीं करता आ रहा हूँ।... मैं थोड़ी देर चुप रहा। साधारण से लगने वाले इस आदमी की बातों में अनुभवों और जीवन के ताप की एक पुरकशिश दुनिया थी। मैं इस पुरकशिश दुनिया की बुनावट का अनुमान करने में खुद को ऐसा पा रहा था जैसे किसी बारिश से नहाई हुई सांझ में सन्नाटे का छंद बज रहा हो। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद...मैंने फिर पूछा कि क्या कोविड पैंडेमिक के दैरान आप,आपके कदम और ये शहर रुके नहीं क्या? आपके काम और कमाई पर कोई असर नहीं हुआ क्या? ...वे हल्के से मुस्कुराये। शायद इस बचकाने से सवाल के लिए वे तैयार न थे। वे बोलने लगे कि पूरी दुनिया पर इसका असर हुआ है। तो हम क्या चीज हैं। अचानक ही मुझसे पूछ बैठे कि आप क्या करते हैं? मैंने कहा- पढ़ाई करता हूँ। अभी नौकरी की तलाश है। वे थोड़े और सहज और भरोसे से लबरेज़ हुए। कहने लगे कि कोरोना की वजह से काम मिलना बंद हो गया है। पहले जब सब खुला था और कोई बंदिश नहीं थी तो खूब काम मिलता था। अब जब से वर्क फ्रॉम होम हुआ है, कम्पनियों में काम करनेवाले घर से निकलते ही नहीं, टूरिस्ट अब आते नहीं तो धंधा एकदम से मंदा हो गया है। UB...R..कंपनी की तरफ से भी न कोई इंसेंटिव, न कोई इन्क्रीमेंट...सब चौपट ही समझिए। ...मैंने फिर पूछा कि जब ये गाड़ी की ऑनलाइन बुकिंग वाली कम्पनियां नहीं होती थीं तब और अब में क्या फर्क दिखता है आपको?.....वे कहते हैं...फर्क साफ है जी। पहले हम गाड़ी चलाते थे....अब app से गाड़ी चलती है। पहले हम टूरिस्टों को घुमाते थे अब टूरिस्ट हमें घुमाते हैं। मैंने कहा ये तो ठीक ही है...आपको ज्यादा काम मिलता होगा अब। विजय जी कहते हैं कि ...हाँ, काम ज्यादा तो मिला लेकिन उसका जो हिस्सा ऑनलाइन कम्पनियों को देना पड़ता है तो बात वहीं हो जाती है, जो पहले थी। ये बात जरूर है कि ज्यादा काम करने का मौका अब मिल जाता है, दिन-रात गाड़ी चलाकर हाड़ तोड़ो तो थोड़े पैसे जुड़ जाते हैं।उनकी यह बात सुनकर अचानक मेरे मन में एक विचार कौंधा कि हाड़ के टूटने और पैसों के जुड़ने से एक खास वर्ग का कितना गहरा रिश्ता है। हम थोड़ी देर चुप रहे। मुझे जहाँ पहुँचना था, वह डेस्टिनेशन धीरे-धीरे करीब आ रहा था। चुप्पी पसरती जा रही थी...मैंने उस पसरती जा रही चुप्पी में बातचीत का कंकड़ छोड़ते हुए पूछा...उत्तराखंड जाते रहते हैं आप? ...हाँ, क्यों नहीं...वह तो मेरी जन्मभूमि है। वहाँ मेरी आत्मा रहती है ..और दिल्ली में मेरा दिल। कुछ दिन पहले ही लौटा हूँ। जब-जब मौका मिलता है..पहाड़ पर बसे अपने घर की दीवार देखने चला जाता हूँ। वे दीवारें जो बचपन में मुझे गरीबी के भयावह रंगों से सनी नज़र आती थीं, उन्हें बाहों में भरकर रोता हूँ। उन बेरंग दीवारों में माई-बाबू जी से जुड़ी यादों का ज़खीरा है। अब मेरे पास यादों की धरोहर के रूप में वे दीवारें ही बची हैं, जिन्हें देखकर अपना घर छोड़ने पर मजबूर हुआ था। ...
मुझे कभी-कभी सपना आता है कि मैं शहर से वापिस गाँव गया हूँ। मैं, मेरी माँ और मेरे पिता,तीनों घर के दीवारों की सफाई कर रहे हैं। नये-नये रंगों से घर की दीवारों को चमका रहे हैं। घर की दीवारें चमक रही हैं, माई और बाबू जी की आँखें भी चमक रही हैं। हम तीनों एक-दूसरे से लिपट जाते हैं। अचानक ही मेरी नींद खुल जाती है। मैं इस नींद से जागते ही इस सपने के खो जाने की निराशा से भर जाता हूँ।...
मन को तसल्ली देते हुए कहता हूँ...नींद और सपने दोनों जुड़ते और टूटते रहते हैं। यह इनकी प्रकृति है और नींद में सपने देखना इंसान की अघोषित नियति।
मुझे माई-बाबू जी की जब बहुत याद आने लगती है तब मैं अगले ही दिन भागकर गाँव पहुँच जाता हूँ। घर में महज चार दीवारें हैं,एक छत है, मैं हूँ और माई-बाबू जी की ढेर सारी यादें हैं।अब माई-बाबू जी के नहीं रहने से क्या वह घर बचा रह गया है....यह भी बार-बार सोचता हूँ।...
.मैं घर पहुँचकर माई-बाबू जी से जैसे कहता हूँ कि अगर आपलोग होते तो यहाँ हम नया घर बनाते। मुफलिसी के बेरंग रंग से पुते इन दीवारों को हम तोड़ देते। लेकिन काश!... आपलोग भूख और बीमारी की जंग हारते नहीं। इतना सोचते ही.मुझे अचानक ही पिछली रात देखे गये उस सपने की याद आ जाती। मैं ठहर जाता हूँ। सपने में माई-बाबू जी जब भी आते हैं, साथ में यही गरीब और लाचार दीवारें मुझे दिखाई देती हैं।
मैं सोचता हूँ कि मेरे ना होने पर इन दीवारों के सहारे ही माई-बाबू जी ने जिंदगी की कितनी ही काली रातों से लड़ाई लड़ी होगी। भूख और बीमारी से पेट और पीठ के अंतर का एहसास खो चुके माई-बाबू जी के जर्जर होते शरीर को इन्हीं दीवारों ने सहारा दिया होगा। मैं जैसे बदहवास होकर उस सपने में से
माई-बाबू जी को खींच लाना चाहता हूँ। पर ऐसा हो नहीं पाता।
मेरे पास अब इन सपनों के अलावा और बचा ही क्या है! ...मैं तय करता हूँ कि इन सपनों को आखिरी सांस तक बचाकर रखना है। ये सपने ही मेरे धरोहर हैं।
मैं शांत हो जाता हूँ...फिर मेरे भीतर से आवाज़ आती है कि...इन सपनों को बचाये रखने के लिए...मुझे इन दीवारों को बचाये रखना होगा। ...
मैं भागकर उन दीवारों से लिपट जाता हूँ। मेरे भीतर का सारा दर्द कराह और आँसू बनकर बाहर आने लगता है। मैं उन दीवारों में माई-बाबू जी को महसूस करता रहता हूँ......
ऐसा कहते हुए विजय जी की आँखों से आँसूओं के सैलाब उमड़ आता है। मैं उनकी ओर देख पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता हूँ।
हम फिर थोड़ी देर चुप रहते हैं। मैं निःशब्द हूँ....अवाक हूँ...मेरी सारी अभिव्यक्ति किसी अदृश्य शक्ति के हाथों जैसे कैद हो गई हो।
....मैं गाड़ी से उतरकर उनका हाथ थाम लेता हूँ.....! वे मुस्कुरा देते हैं। जैसे उनकी आंसुओं में दर्द बहकर कुछ समय के लिए उन्हें राहत दे गया हो।
मेरे होठ काँपते हैं...जाते-जाते मैं बस इतना कह पाता हूँ...आप कमाल हैं... विजय जी!
वे जवाब देते है...कमाल तो क्या! बस जीने की ज़िद है। अपने जीने की ज़िद की लहरों से वक्त के किनारे को धक्का दिए जा रहा हूँ...जिंदगी के गीत गाये जा रहा हूँ...
मेरा गंतव्य आ चुका था। मैंने उन्हें पैसे दिये और विदा लिया। ...कुछ दूर एक गली में जिस तरफ मुझे जाना था,उस तरफ बढ़ते हुए मैंने देखा कि...एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति (पेशे से कपड़ा धोने का उनका काम रहा होगा) वे कपड़े प्रेश कर रहे थे, उनके घर के बाहर की दीवार पर एक छोटी बच्ची पेंसिल से कुछ चित्र बनाने की कोशिश कर रही थी। घर के भीतर से टीवी पर बजते एक गीत की आवाज़ बाहर आ रही थी....
कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे...
उदासी भरे दिन...कभी तो टलेंगे।
मैं धीरे- धीरे उस अँधेरी होती गली में बढ़ता चला गया।
प्रशान्त रमण रवि
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी
गवर्नमेंट कॉलेज लिल्ह कोठी, चंबा(हिमाचल प्रदेश)
Email:- raviraman0076@gmail.com
Amazing story 🙂
ReplyDeleteBahut khub
ReplyDelete🙌👌👌
ReplyDeleteWah sir amazing story💓🔥
ReplyDelete👌👌💓
ReplyDeleteremarkable story..🙂
ReplyDeleteWahh sir 🤗❤️❤️❤️
ReplyDeleteBhutt hi bdiyaa 👌👌❤
ReplyDeleteBhutt hi bdiyaa 👌👌
ReplyDeleteBhutt hi bdiyaa 👌👌👌
ReplyDeleteBahut hi achhi kahani hai sir g
ReplyDeletePad kr aanad aa gya .
Aapka vidyarthi bhalei college se
Anil Kumar
भावपूर्ण शब्दों का सुंदर समायोजन , और ऐसा हमेशा आपके लेखन में देखने को मिलता है बहुत ही अच्छी और मार्मिक कहानी लगी । कुछ पंक्तियां आंख नम कर गयी ।
ReplyDelete👌👌 amazing story... Reality of life...
ReplyDelete👌♥️
ReplyDeleteWaah sir awsm story ❣️👌
ReplyDeleteAmazing story ❤
ReplyDeleteजीवन का सच , बहुत बेहतरीन गुरुजी 🙏 ❤️
ReplyDeletenice article, waiting for your another :)
ReplyDeletenice article, waiting for your another :)
ReplyDeleteVery hurt touching ❤️
ReplyDeleteBhut bhut khub sir👌❤️
ReplyDeleteप्रेरणादायक कहानी सर 👌👌♥️❤️💐
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन तरीके से सुभाषित वृतांत,sir! पैरों तले जमीन खिसक गई 🥰🥰🥰❣️
ReplyDeleteआपका पुष्प राज चौहान 🙏🤗
ऐसा प्रतीत होता है ये घटनाक्रम मेरे समक्ष चल रहा है इतना सूक्ष्म वर्णन अदभुत है!
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी और मार्मिक कहानी लगी गुरु जी।कुछ पंक्तियां आँख नम कर देने वाली थी। 👍👍👍👌👌👌👌
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी और मार्मिक कहानी लगी गुरु जी।👍👍👍👌👌👌👌
ReplyDeleteकाफी खूबसूरत सफर रहे कहानी को पढ़ते हुए मेरे भी। इतने अच्छे शब्दो का चयन जो मन को भावुक कर गए।
ReplyDeleteकाफी खूबसूरत सफर रहे कहानी को पढ़ते हुए मेरे भी। इतने अच्छे शब्दो का चयन जो मन को भावुक कर गए।
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